भारत में पुरुषों के खिलाफ हिंसा एक गंभीर और व्यापक समस्या है, जो अक्सर अनदेखी या कम करके आंकी जाती है। हर बार जब हम किसी पुरुष की ऐसी आत्महत्या या हत्या के बारे में सुनते हैं, तो सबको लगता है कि इनका आपस में कोई लेनादेना नहीं है, जबकि वास्तव में ये सब घटनाएं एक बहुत बड़ी समस्या का हिस्सा हैं।
दामन व सेव इंडियन फैमिली मूवमेंट के साथ कानूनों व समाज में लैंगिक समानता के लिए जद्दोजहद के अपने 15 से अधिक वर्षों में मैंने #AtulSubhash जैसे अनेकों मामले और #JusticeForAtulSubhash जैसे कई सोशल मीडिया ट्रेंड्स देखे हैं। मैं जब कभी भी ऐसे सुसाइड नोट या आत्महत्या देखता हूँ तो मुझे आश्चर्य होता है कि समाज, ख़ास तौर पर पुरुष कब जागेंगे? ऐसे सोशल मीडिया ट्रेंड्स कुछ दिनों के बाद स्वभाविक रूप से समाप्त हो जाते हैं।
रिपोर्ट की गई घटनाएं आत्महत्याओं या निर्दोष पुरुषों की हत्याओं की कुल संख्या का केवल एक छोटा सा हिस्सा दर्शाती हैं, जिनमें से अधिकांश घरेलू / भावनात्मक हिंसा या बिगड़ते संबंधों के कारण होती हैं।
घरेलू हिंसा और सामाजिक कलंक
पुरुषों के खिलाफ घरेलू हिंसा एक आम समस्या है, लेकिन इसके बारे में खुलकर बात नहीं की जाती। पीड़ित पुरुषों को अक्सर शर्मिंदगी महसूस होती है और वे मदद लेने से डरते हैं। समाज में एक व्यापक धारणा है कि पुरुष हिंसा के शिकार नहीं हो सकते हैं, जिसके कारण पीड़ितों को न्याय मिलने में कठिनाई होती है।
मर्दानगी का बोझ और भावनाओं का दमन
हमारा समाज पुरुषों को परिवार के लिए एक निश्चित तरह से रक्षक व प्रदाता (protector and provider) के रूप में ही व्यवहार करने के लिए बाध्य करता है। पुरुषों को मजबूत, निर्भीक और अपनी भावनाओं को दबाने में सक्षम माना जाता है। यह "मर्दानगी" का एक संकीर्ण दृष्टिकोण है, जो पुरुषों को मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं से ग्रसित करता है और पारिवारिक अथवा घरेलू हिंसा का शिकार बनाता है। इस सब से पुरुष अपनी कमजोरियों को स्वीकार करने और मदद मांगने में हिचकिचाते हैं, जिससे उनकी स्थिति और बिगड़ जाती है। फ़िर या तो वो अपने संघर्षों को आत्मस्वीकार कर लेते हैं और चुपचाप पीड़ित होते हैं, अन्यथा कोई आत्मघाती कदम उठा कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं।
सरकारी नीतियों और सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता
सरकारों को यह समझना चाहिए कि कई बाधाएँ हैं जो पुरुषों को मदद माँगने या अपमानजनक व कष्टकारी अनुभवों की रिपोर्ट करने से रोकती हैं; पुरुषों के लिए ऐसे किसी भी प्लेटफार्म की कमी सबसे बड़ी बाधा है। पुरुषों के खिलाफ घरेलू हिंसा बहुत आम है और घरेलू हिंसा के संदर्भ में हुआ कोई भी सरकारी सर्वेक्षण उस डेटा को इकट्ठा करने की कोशिश नहीं करता है, इसलिए हमारे समाज को एक ऐसे प्लेटफार्म की आवश्कता है जहाँ पुरुष भी अपनी परिस्थितियों के बारे में बोल सकें।
निष्कर्ष
पुरुषों के खिलाफ हिंसा एक छिपी हुई महामारी है, जिस पर सरकार को ध्यान देने की आवश्यकता है। समाज को भी इस मुद्दे के बारे में खुलकर बात करनी चाहिए और पीड़ितों को समर्थन देना चाहिए। केवल तभी हम एक ऐसे समाज का निर्माण कर सकते हैं जहां हर व्यक्ति सुरक्षित और सम्मानित महसूस करे।
Comments