This beautiful poem "मैं पुरूष" has been written by Yuvraj Katare and it precisely draws a hairline that differentiates the rights of women over men who get to face only misandry in today's society where gynocentrism rules!
मैं पुरूष
मैं पुरूष, बंदर हूं उस मदारी का, जिसका नाम नारी हैं;
अबला, दलित, हेय उसे है कहते, वह पुरूषो पर भारी हैं।
कानून सभी रक्षा उसकी करते,
वही केवल सुरक्षा की अधिकारी हैं;
अर्थहीन पुरूष जीवन, केवल आय स्रोत,
परिवार की मांगे जिस पर भारी हैं।
पुरूष राक्षस, खल, कामी, दहेजलोभी,
समाजद्रोही, नारी शोषक, बलत्कारी हैं;
नारी देवी, कमजोर, सास-बहु, ननद, बहिन, पत्नी-प्रेमिका बन,
पुरूष पर उपकारी हैं।
ध्येय नारी का सदा शासन करना,
हीनदीन मिथ्या अश्रुधारी हैं;
वह बेचारी, वह व्याभिचारी, वह छल-कारी,
प्रलोभन पूर्ण करती सदा मक्कारी हैं।
स्वार्थ भावना से परिपूर्ण, निज तक विचार,
पुरूष हेतु केवल पतनकारी हैं;
"मां" शब्द को गर छोड़ दू,
नारी फिर बस हर प्रयोजन छलकारी हैं।
यह समाज कब चेतेगा, स्थिती कब बदलेगी,
वर्तमान कानून पुरूष विनाशकारी हैं;
कब तक हम आत्महत्या करेगें, कब तक "मां के लाल" मरेगें,
यह अपमान भीषण दुखकारी हैं।
सोचता हूं क्यों नहीं पुरूषों को, समाज से पृथक कर दूं,
निर-अपराध पुरूषो को क्यो नही जन्म से जेल में भर दूं;
कम से कम इन दोषो से रक्षण होता, ऐसे तो न व्यर्थ जीवन क्षरण होता,
हमसे तो पशु ही अच्छे है, भेद नही नर मादा का, वे सब पशु के बच्चें हैं।
हे 'अनुपम' तुम कृष्ण बन, फिर गीता-पाठ सुनाओ,
फिर एक बार इस जीवन-रण में, हमे कर्म पथ ज्ञान कराओ;
जिससे समाज का यह पुरूष भक्षण रूक जावैं,
समाज, समाज हो, असीम आनंद जीवन में आवे।।
The poet Yuvraj Katare can be reached at yuvraj.katare11@gmail.com and over his phone at 9516473138
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