ऐतिहासिक और सामान्य अवधारणाओं के आधार पर हम सभी यह जानने का दावा करते हैं कि एक पुरुष होने का क्या अर्थ है!
बचपने से ही हमारा महिलावादी समाज यह विश्वास दिला देता है कि पुरुष होना आपकी क्षमताओं से संबंधित है। हमें सिखाया जाता है कि एक पुरुष होने का अर्थ है कि ‘रोना नहीं है’, बल्कि यह महिलाओँ एवं बच्चों की सुरक्षा और परिवार की देख-भाल की जिम्मेदारी से संबंधित है।
परन्तु कालांतर में आज जब पुरुषों के इस रक्षक एवं देख-रेख करने वाले की भूमिका को भी ‘विषाक्त पुरुष प्रधानता’ की उत्पत्ति करार दिया जा रहा है, और जहाँ महिलावादी सम्पूर्ण पुरुष समाज को ही नकारात्मक प्रकाश में चित्रित कर रहे हैं, पुरुषार्थ की अवधारणा भी सरल नहीं रही है। अब, सरकार की नीतियां भी महिलावाद से प्रभावित एवं पुरुषो के विरुद्ध पक्षपातपूर्ण हैं।
एक कटु सत्य
आज के परिपेक्ष में सरकारों द्वारा संविधान के अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15(1) और अनुच्छेद 21 को नजरअंदाज कर मात्र अनुच्छेद 15(3) को बल देकर जिस प्रकार नीतियां तथा कानून बनाए जा रहे हैं, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता की एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिससे पुरुषों के मानवाधिकारों पर विशिष्ट रूप से प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
न्यायशास्त्र की संविधान के सभी अनुच्छेदों को एकीकृत रूप में पड़ने की अवधारणा के विपरीत जाकर सरकार द्वारा संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों को सहुलियत अनुसार जोड़ने-तोड़ने उलटने-पलटने के कारण ही अनुच्छेद 15(3) की व्याख्या कभी भी अनुच्छेद 15(1) के सह-प्रावधान के रूप में नहीं की जाती है। अनुच्छेद 15 (1) लैंगिक आधार पर किसी भी भेदभाव को प्रतिबंधित करता है'; परन्तु, सरकार अनुच्छेद 15 (3) तथा अनुच्छेद 15(1) को एक साथ पढ़ाकर यह दर्शाती है कि अनुच्छेद 15 (1) और 15 (3) संयुक्त रूप से न केवल सरकार को महिलाओं के पक्ष में तथा पुरुषों के विरुद्ध भेदभाव की अनुमति प्रदान करते हैं, बल्कि पुरुषों के पक्ष में तथा महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव को प्रतिबंधित करने के साथ ही महिलाओँ के विरुद्ध पुरुषों के पक्ष में न्याय को भी हतोत्साहित करता है।
भारतीय संविधान के अनुसार:
अनुच्छेद 14 के अनुसार: राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। [विधि के समक्ष समता]
अनुच्छेद 15(1) के अनुसार: राज्य, किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा। [धर्म, मूलवंश.जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद प्रतिषेध]
अनुच्छेद 21 के अनुसार: किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं। [प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण]
तथा अनुच्छेद 15(3) के अनुसार: इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को स्त्रियों और बालकों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगा।
महिलावादियों से प्रेरित हो और उनके दबाव में सरकारें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15(1) और 21 को इतनी आसानी से नजरअंदाज करती हैं कि परिणामस्वरूप, लैंगिक आधार पर बननेवाले की प्रक्रीया में पुरुषों के प्रति महिलाओं द्वारा हिंसा या ऐसी स्थिति में पुरुष को भी महिला के विरुद्ध न्याय की पूर्णतया अनदेखी कर मात्र किसी भी महिला के प्रति किसी पुरुष द्वारा हिंसा को ही बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाता है।
पिछले करीब 15 वर्षो में हमने जितनी भी याचिकाएँ सरकार के समक्ष करी है, किसी का भी सरकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है और हमारी कोई सुनवाई नहीं हुई है, परिणामस्वरूप प्रत्येक वर्ष भारत में लगभग 95,000 पुरुष आत्महत्या करते है।
इसलिए, वर्तमान परिदृश्य में जहाँ कानून पुरुषों के विरुद्ध भेदभाव करता है जिस कारण इतनी अदिक संख्या में पुरुष आत्महत्या कर रहे हैं, पुरुषों को भी अपनी निम्नलिखित को सम्मिलित करते हुए असीमित समस्याओं को रखने और उसके निराकरण के लिए राष्ट्रीय पुरुष आयोग का गठन किया जाना चाहिए।
कम जीवन प्रत्याशा
प्रोस्टेट कैंसर
पुरुषों के लिए कोई बजटीय प्रावधान न होना
पितृत्व धोखाधड़ी पुरुषों को विशिष्ट रूप से प्रभावित करती है
शिशु पुरुष जननांग विकृति
बलात्कार के झूठे आरोप
पुरुषों के प्रति घरेलु हिंसा
पुरुषों के प्रति यातनाऐं
लैंगिक आधार पर कानूनों में भेदभाव
पूर्वाग्रह से ग्रसित आपराधिक न्यायालय के पूर्वाग्रह / गलतफहमी
लैंगिक आधार पर दंड में असमानता
चाइल्ड कस्टडी / चाइल्ड सपोर्ट
युद्ध में पुरुषों की मृत्यु दर सर्वाधिक है
सर्वाधिक स्कूल छोड़ने वाले लड़के हैं
मानसिक सेहत
सर्वाधिक बेघर पुरुष
वरिष्ठ नागरिकों के मुद्दे
सर्वाधिक आत्महत्या करने वाले पुरुष
कार्यस्थल पर होने वाली मृत्युओं में सर्वाधिक पुरुष
एक बार बच्चे के गर्भ में आने
एक बार महिला के गर्भवती होने के उपरान्त बच्चे को जन्म देने अथवा न देने में कोई विकल्प न होना
घरेलू हिंसा के शिकार पुरुष के लिए कोई मंच न होना
अगर आप स्वयं या आपके प्रियजनों में से कोई इनमे से किसी भी समस्या का भुक्तभोगी है, तो आप यह समझ सकते हैं कि इस सूची में ऐसे ही हृदयविदारक कई और मुद्दों को शामिल हैं।
हमारा तथाकथित पुरुष प्रधान समाज जितनी सहजता से मानता है कि पुरुषों के पास समस्त अधिकार, विशेषाधिकार और शक्तियां हैं, उतनी ही सहजता से पुरुषों के उन मुद्दों को ही नजरअंदाज कर देता है जिनका सरकार द्वारा निराकरण अति आवश्यक है।